भारत की होली के पौराणिक सबूत
पाकिस्तान में
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होली शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा त्योहार है, जो सामुदायिक बहुलता की समरस्ता से जुड़ा हुआ है। इस पर्व में मेल-मिलाप का जो आत्मीय भाव अंतरमन से उमड़ता है, वह सांप्रदायिक अतिवाद और जातीय जड़ता को भी ध्वस्त करता है। होली का त्योहार हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका के दहन की घटना से जुड़ा है। ऐसी लोक-प्रचलित मान्यता है कि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। वस्तुत: उसके पास ऐसी कोई वैज्ञानिक तकनीक थी जिसे प्रयोग में लाकर वह अग्नि में प्रवेश करने के बावजूद नहीं जलती थी।

चूंकि होली को बुराई पर अच्‍छाई की जीत के पर्व का पर्व माना जाता है इसलिए जब वह अपने भतीजे और विष्णु-भक्त प्रहलाद को विकृत और क्रूर मानसिकता के चलते गोद में लेकर प्रज्वलित आग में प्रविष्ट हुई तो खुद तो जलकर खाक हो गई, परंतु प्रह्लाद
बच गए। उसे मिला वरदान सार्थक सिद्ध नहीं हुआ, क्योंकि वह तो असत्य और अनाचार की आसुरी शक्ति में बदल गई थी।
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पौराणिक राज छुपे हैं पाकिस्तान में : ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्‍यों से यह पता चलता है कि होली की इस गाथा के प्रामाणिक तथ्य पाकिस्तान के मुल्तान से जुड़े हैं यानी अविभाजित भारत से। अभी वहां भक्त प्रह्लाद से जुड़े मंदिर के भग्नावशेष मौजूद हैं। वह खंभा भी मौजूद है जिससे भक्त प्रह्लाद को बांधा गया था।

भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान में हिन्दुओं के मंदिरों को नेस्तनाबूद करने का जो सिलसिला चला, उसके थपेड़ों से यह मंदिर भी लगभग नष्टप्राय: हो गया, मगर इसके चंद अवशेष अब भी मुल्तान में मौजूद हैं और वहां के अल्पसंख्‍यक हिन्दू होली के उत्सव को मनाते हैं। जाहिर है, यह पर्व पाक जैसे अतिवादी से ग्रस्त देश में भी सांप्रदायिक सद्भाव का वातावरण बनाता है।


यहां वह स्थान आज भी है जहां पर भक्त प्रह्लाद को बांधा गया था और जहां से साक्षात नृसिंह देवता प्रकट हुए थे। कुछ लोग इस खंबे को भक्त प्रह्लाद के बंधे होने की मान्यता को मानते हैं जबकि कुछ यह मानते हैं कि इसी से नृसिंह देवता प्रकट हुए थे। 



प्रह्लाद की जन्मभूमि मुल्तान का इतिहास :
यह कभी प्रह्लाद की राजधानी था और उन्होंने ही यहां भगवान विष्णु का भव्य मंदिर बनवाया। मुल्तान वास्तव में संस्कृत के शब्द मूलस्थान का परिवर्तित रूप है, वह सामरिक स्थान जो दक्षिण एशिया व इरान की सीमा के चलते सैन्य दृष्टि से संवेदनशील था।

यहां माली वंश के लोगों ने भी शासन किया और अलक्षेंद्र (सिकंदर) को यहीं पर भारतीय राजाओं के साथ युद्ध के दौरान छाती में तीर लगा जो उसकी मृत्यु का कारण बना। समय-समय पर इस नगरी पर अनेक हमलावरों ने आक्रमण किए। इस्लामिक लुटेरों ने प्रह्लाद के मंदिर को भी कई बार क्षतिग्रस्त किया और इसके पास भी हजरत बहाउद्दीन जकारिया का मकबरा बना दिया गया। इतिहासकार डॉ. ए.एन. खान के हिसाब से जब ये इलाका दोबारा सिक्खों के अधिकार में आया तो सिख शासकों ने 1810 के दशक में फिर से मंदिर बनवाया।
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मगर जब एलेग्जेंडर बर्निस इस इलाके में 1831 में आये तो उन्होंने वर्णन किया कि ये मंदिर फिर से टूटे फूटे हाल में है और इसकी छत नहीं है। कुछ साल बाद जब 1849 में अंग्रेजों ने मूल राज पर आक्रमण किया तो ब्रिटिश गोला किले के बारूद के भण्डार पर जा गिरा और पूरा किला बुरी तरह नष्ट हो गया था। बहाउद्दीन जकारिया और उसके बेटों के मकबरे और मंदिर के अलावा लगभग सब जल गया था।

एलेग्जेंडर कनिंघम ने 1853 में इस मंदिर के बारे में लिखा कि ये एक ईंटों के चबूतरे पर काफी नक्काशीदार लकड़ी के खम्भों वाला मंदिर था। इसके बाद महंत बावलराम दास ने जनता से जुटाए 11,000 रुपये से इसे 1861 में फिर से बनवाया। उसके बाद 1872 में प्रह्लादपुरी के महंत ने ठाकुर फतेह चंद टकसालिया और मुल्तान के अन्य हिन्दुओं की मदद से फिर से बनवाया।

सन 1881 में इसके गुम्बद और बगल के मस्जिद के गुम्बद की उंचाई को लेकर हिन्दुओं-मुसलमानों में विवाद हुआ जिसके बाद दंगे भड़क उठे। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में दंगे रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कुछ नहीं किया। इस तरह इलाके के 22 मंदिर उस दंगे की भेंट चढ़ गए। मगर मुल्तान के हिन्दुओं ने ये मंदिर फिर से बनवा दिया। ऐसा ही 1947 तक चलता रहा जब इस्लाम के नाम पर बंटवारे में पाकिस्तान हथियाए जाने के बाद ज्यादातर हिन्दुओं को वहां से भागना पड़ा।
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बाबा नारायण दास बत्रा वहां से आते समय वहां के भगवान नरसिंह की प्रतिमा ले आये। अब वो प्रतिमा हरिद्वार में है। टूटी फूटी, जीर्णावस्था में मंदिर वहां बचा है। सन 1992 के दंगे में ये मंदिर पूरी तरह तोड़ दिया गया। अब वहां मंदिर का सिर्फ अवशेष बचा है। सन 2006 में बहाउद्दीन जकारिया के उर्स के मौके पर सरकार ने इस मंदिर के अवशेष में वजू की जगह बनाने की इजाजत दे दी।